प्यासी होती सभ्यता

मीनाक्षी अरोड़ा

"अगले सौ वर्षों में धरती से मनुष्यों का सफाया हो जाएगा।" ये शब्द आस्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी के प्रोफेसर फ्रैंक फैनर के हैं। उनका कहना है कि ‘जनसंख्या विस्फोट और प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा इस्तेमाल की वजह से इन्सानी नस्ल खत्म हो जाएगी। साथ ही कई और प्रजातियाँ भी नहीं रहेंगी। यह स्थिति आइस-एज या किसी भयानक उल्का पिंड के धरती से टकराने के बाद की स्थिति जैसी होगी।’ फ्रैंक कहते हैं कि विनाश की ओर बढ़ती धरती की परिस्थितियों को पलटा नहीं जा सकता। पर मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता क्योंकि कई लोग हालात में सुधार की कोशिश कर रहे हैं। पर मुझे लगता है कि अब काफी देर हो चुकी है।
 
धीरे-धीरे धरती से बहुत सारे जीव-जन्तु विदा हो गए। दुनिया से विलुप्त प्राणियों की ‘रेड लिस्ट’ लगातार लम्बी होती जा रही है। इन्सानी फितरत और प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन ने हजारों जीव प्रजातियों और पादप प्रजातियों को हमारे आस-पास से खत्म कर दिया है। औद्योगिक खेती और शहरी-ग्रामीण विकास में वनों के विनाश ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अकेले भारत में ही लगभग 1336 पादप प्रजातियां असुरक्षित और संकट की स्थिति में मानी गई हैं।


इन्टरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती से 7291 जीव प्रजातियाँ इस समय विलुप्ति के कगार पर हैं। वनस्पतियों की 70 फीसदी प्रजातियों और पानी में रहने वाले जीवों की 37 फीसदी प्रजातियों और 1147 प्रकार की मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

हमारे आस-पास के जीव-जन्तु और पौधे खत्म होते जा रहे हैं। हम केवल चिंता और चिंतन का नाटक कर रहे हैं। दूसरों के जीवन को समाप्त करके आदमी अपने जीवन चक्र को कब तक सुरक्षित रख पाएगा? ईश्वर के बनाए हर जीव का मनुष्य के जीवन चक्र में महत्व है। मनुष्य दूसरे जीव के जीवन में जहर घोल कर अपने जीवन में अमृत कैसे पाएगा?

वर्तमान समय में तीन रुझान ऐसे हैं जो मानव जाति के भविष्य पर मंडराते खतरे की ओर गम्भीर संकेत कर रहे हैं - मौसम सम्बन्धी आपदाओं में बढ़ोत्तरी, पीने के साफ पानी की बढ़ती माँग और मानव और पशु अंगों की कालाबाजारी। धरती पर पिछली शताब्दी, पर्यावरण और मौसम सम्बन्धी आपदाओं और दुर्घटनाओं की रही है, जिसमें सूखा, अत्यधिक तापमान, बाढ़, भूस्खलन, तूफान, जंगलों की आग आदि भी शामिल हैं।

कई चौंका देने वाले तथ्य भी सामने आए हैः जैसे कि पिछली शताब्दी में हमने बहुत सी प्राकृतिक आपदाएं देखी, सुनी और झेली। तूफान, चक्रवात, जंगलों की आग, बाढ़ आदि बहुत सी प्राकृतिक आपदाएं आईं यानी हम कह सकते हैं कि पृथ्वी अपने पर हुए अत्याचार के बदले में अपना गुस्सा प्रकट कर रही थी। जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की वजह से कितने ही द्वीप देखते ही देखते काल के गर्त में चले गए। समुद्र का स्तर बढ़ जाने से द्वीप डूब रहे हैं उधर कार्बन उत्सर्जन से तापमान बढ़ रहा है। बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, नदियों में पानी नहीं है। कहीं बाढ़ आ रही है तो कहीं सूखा पड़ रहा है। पानी में आर्सेनिक, लोराइड और अब तो यूरेनियम तक मिल रहा है। परिणामस्वरूप पानी और धरती विषैले हो रहे हैं।

दुर्भाग्य से कार्बन उत्सर्जन, भूमि की विषाक्तता बढ़ने तथा जमीन और पानी के बढ़ते प्रदूषण के मामलों में हम अब भी उतने सक्रिय और तेज नहीं हैं, जितना होना चाहिये। बजाय इसके कि हम अपने को किसी क्रियात्मक गतिविधि में लगाते, हम सिर्फ अपने उपभोग के तौर-तरीकों को “कथित” रूप से ठीक करने में लगे हुए हैं। इतना ही नहीं हम पर्यावरण के प्रति जागरुकता के अपने अल्पज्ञान को छिपाने की कोशिश करते हैं।

हम औद्योगिक विश्व की क्षमताओं से बड़े अचम्भित होते हैं, लेकिन इस बात पर जरा भी ध्यान नहीं देते कि हमारे आसपास आवश्यक संसाधन और बुनियादी सुविधाओं की क्या स्थिति है? अलबत्ता पश्चिमी जीवनशैली की टैक्स पद्धति को हम वैश्विक स्तर पर अपनाने लगे हैं। सच तो यही है कि हम अभी तक समस्या की सही पहचान ही नहीं कर पाये हैं कि दुनिया अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सामूहिक इंकार की स्थिति का सामना कर रही है।

विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक बीस वर्ष में शुद्ध पेयजल की माँग दोगुनी रतार से बढ़ रही है, जबकि विकासशील देशों में पानी की आपूर्ति असमान है। समस्या के विकराल होने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आए दिन पानी को लेकर मार-पीट, झगड़े न केवल लोगों के बीच बल्कि राज्यों और देशों के बीच भी हो रहे हैं। संविधान में सभी को बराबर अधिकार दिये गए हैं लेकिन कुछ सरकारें लोगों से पानी के समान अधिकार तक को छीन रही हैं।

पानी के दुरुपयोग को रोकने के नाम पर हाल में विश्वबैंक की अनुशंसा पर एक फ्रांसीसी कंसल्टेंट-कास्टेलिया को मुम्बई में जलसेवाओं का निजीकरण करने के के उद्देश्य से सर्वेक्षण का ठेका दिया गया, जिसने अपनी रिपोर्ट में कईं सिफारिशे रखीं जिनमें बस्ती निवासियों के लिये प्रीपेड वाटरमीटर के लिये भी कहा गया। हालांकि बाकी कुछ इलाके ऐसे हैं, जिनमें 150 लि. प्रति व्यक्ति निःशुल्क जल प्रदाय होगा उससे ज्यादा पानी इस्तेमाल करने पर भुगतान करना होगा। लेकिन बस्तीवासियों के लिये ऐसा नियम नहीं है। उन्हें इस्तेमाल से पहले ही भुगतान करना होगा। जरा सोचिये! जो गरीब रोटी के लिये दर दर भटकता है वो पानी के लिये पहले ही भुगतान कहां से करेगा। पानी बचाने के नाम पर यह अन्याय कैसे सहा जा सकता है?

अभी तक ब्राजील, अमेरिका, फिलीपींस, नामीबिया, स्वाजीलैंड, तंजानिया, नाइजीरिया, ब्रिटेन और चीन आदि जगहों पर प्रीपेड वाटर मीटर इस्तेमाल किये जा चुके हैं, लेकिन जहां कहीं भी ये मीटर लगाए गए वहां हैजा और अन्य बीमारियां फैल गईं। क्योंकि भुगतान न कर सकने की स्थिति में लोग असुरक्षित और गंदे स्रोतों से पानी लेने लगते हैं। अब मुम्बई में वही स्थित होने वाली है। सामुदायिक हैंडपंपों का रख-रखाव ठीक न करके प्रीपेड वाटर मीटर द्वारा लोगों को पानी बेचने की कोशिश सरकारों की प्राकृतिक संसाधनों के प्रति अदूरदर्शिता ही बताता है।

यह सही है कि इन मीटरों की वजह से पानी की खपत में कमी आ सकती है लेकिन गरीबों के सार्वजनिक स्वास्थ्य और साफ-सफाई की स्थिति बदतर हो जाएगी।

अमेरिका और ब्रिटेन ने तो लोगों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ने के कारण प्रीपेड वाटर मीटर का इस्तेमाल 90 के दशक में ही बंद कर दिया था। यू.के. वाटर एक्ट 1998 में ऐसे किसी भी उपकरण का इस्तेमाल करने से मनाही है जिससे उपभोक्ता के पास पैसा न होने की वजह से उसकी जलापूर्ति बंद हो जाए।

पानी की बढ़ती माँग और आपूर्ति के बीच सन्तुलन कैसे बनाया जाये इस बात पर विचार करने के लिये कोई न कोई दूरगामी नीति बनानी ही पड़ेगी। कुल मिलाकर पानी की बढ़ती माँग तथा उसकी अनिश्चित आपूर्ति समूची मानव प्रजाति को संकट में डालने जा रही है।

Writer is Chairperson-Water Community India,
Chairperson- TREE (Trust for Research on Earth and Environment)
 (इंडिया वाटर पोर्टल)

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