राजनीति को पाठ्यक्रमों में शामिल करने की मुहिम -राजनीति बने अन्य कोर्सों के तरह कैरियर


देश में बढ़ते घोटालों और राजनीतिक वायदा खिलाफी के बीच राजनीति को लेकर अच्छी खासी जंग छिड़ी है। देश की जनता वर्तमान राजनीतिक लोगों (केवल सत्ताधारी ही नहीं विपक्षी भी) से हताश हो चुकी है। यह हताशा वास्तव में राजनीतिक व्यवस्था से है। लोकतंत्र में राजनीतिक व्यवस्था बड़ी बात है और देश में राजनीति को जनसेवा का माध्यम की संज्ञा दी जाती है, जबकि राजनीति में आए लोग सत्ता हासिल करने की होड़ में लगे रहते हैं। जनसेवा से उनका सरोकार केवल वोट बैंक तक सीमित है।

हताशा के इस दौर में चुनाव की तैयारियां भी शुरू हो गई हैं। आने वाले लोकसभा चुनाव में क्या होगा? कहना मुश्किल है। कांग्रेस के प्रति लोगों का गुस्सा कह रहा है कि कांग्रेस जा रही है, लेकिन बंटे हुए विपक्ष और मुख्य विरोधी भाजपा की अन्तर्कलह कांग्रेस को तीसरी बार अगर सत्ता में ले आए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। अगर कांग्रेस चली भी जाए तो सरकार कौन बनाएगा एनडीए या थर्ड फ्रंट, यह भी तय नहीं है। राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो चुनाव के बाद ही तय होगा, लेकिन इस पूरी मुहिम में एक खास बात सोचने की यह है कि क्या इससे जनता की हताशा कम होगी, क्या जनता का गुस्सा ठंडा हो पाएगा? शायद नहीं। यही कारण भी है कि एक जाता है दूसरा आता है और फिर वह चला जाता है और पहले वाला फिर आ जाता है।

वास्तव में आज राजनीति जनसेवा का माध्यम न होकर राजनीति कैरियर (आजीविका) हो गई है। जहां पर विधायक और सांसदों को लाखों रुपए के वेतन और भत्ते मिलते हों, वहां सेवा कैसी, वह तो कैरियर (आजीविका) है। बकौल अन्ना हजारे राजनीतिक दलों ने सत्ता से पैसा और पैसे से सत्ता हासिल कर लोकतांत्रिक गणराज्य का मखौल उड़ाया है। संविधान में दलीय व्यवस्था का प्रावधान नहीं होने के बावजूद इसे जनता पर थोप दिया। राजनीतिक दल औद्योगिक घरानों से चंदा लेकर काले धन को सफेद कर रहे हैं। पूरे देश से करीब छह करोड़ लोगों को एक साल के लिए जोड़ा जा रहा है। यही लोग पूरे देश में व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को मुकाम तक ले जाएंगे। आज लड़ाई राजनीतिक दलों के लिए जहां सत्ता की है, वहीं जनता के लिए व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई है। ये लोग कभी नहीं चाहेंगे कि देश की जनता में राजनीतिक जागरूकता आए।

आज राजनीति को अगर कैरियर (आजीविका) का दर्जा मिल जाए तो आधी समस्या का समाधान हो सकता है। दिल्ली में एक विधायक करीबन 82 हजार रुपए प्रति मास सरकारी खजाने से ले रहा है। उत्तर प्रदेश में विधायक को 50 हजार रुपए से ज्यादा की राशि हर मास मिलती है। बिहार में यह राशि 1.65 लाख रुपए प्रति मास है। तमिलनाडू में 50 हजार, केरल में इसे अवर सचिव से ज्यादा रखने का प्रावधान है। पंजाब में विधायक औसतन एक लाख रुपए से ज्यादा प्रति मास ले रहा है। महाराष्ट्र में विधायकों का वेतन और भत्ते 75 हजार रुपए प्रति मास है। हरियाणा में विधायक को 62 हजार रुपए प्रति मास मिलते हैं। राजस्थान में यह राशि 70 हजार रुपए प्रति मास से ज्यादा है।

एक अध्ययन में पाया गया है कि देशभर में 800 सांसद और करीबन 4100 विधायक और लगभग 1000 से ज्यादा विधान परिषद के सदस्य चुनकर आते हैं, जो मोटी तनख्वाह और भत्ते लेते हैं। इनका वेतन कहीं भी अवर सचिव स्तर के अधिकारी से कम नहीं है और कई मामलों में तो यह प्रधान सचिव के वेतन के बराबर खड़े होते हैं। यही नहीं एक बार चुनाव जीतने के बाद इन्हें सारी उम्र पेंशन और भत्ते भी मिलते हैं। जब वह पेंशन के पात्र हैं तो इसका अर्थ यह भी है कि इन्हें सरकारी सेवा में माना गया है और जब सरकारी सेवा माना गया है तो यह कैरियर (आजीविका) क्यूं नहीं है?

देश के शिक्षा पाठयक्रम में राजनीतिक शास्त्र एक विषय तो है, यह सामान्य जानकारी और किताबी ज्ञान तो देता है, लेकिन व्यवहारिक दृष्टि से यह राजनीतिक चेतना जागृत करने में विफल है। विदेशों में ऐसे अनेक संस्थान हैं जो राजनीतिक नेतृत्व विकसित करने का काम कर रहे हैं। देश में भी कुछ ऐसे संस्थान हैं, जो राजनीतिक नेतृत्व पैदा करने का काम कर रहे हैं, लेकिन इनकी संख्या बहुत सीमित है और दाखिले के लिए इनमें नियमांक तय नहीं हैं। देश में जो प्राईवेट संस्थान राजनीति नेतृत्व पैदा करने का काम कर रहे हैं यहां उनमें पढ़ाए जाने वाले कुछ कोर्सों का जिक्र करना भी अनिवार्य है। इनमें संसद के चुनाव के लिए कोर्स करवाया जाता है। यह कोर्स 2 साल का है, जिसमें 18 मास संस्थान में प्रशिक्षण दिया जाता है और 6 महीने क्षेत्र में उसका प्रयोगात्मक विश्लेषण होता है। विधायक के चुनाव के लिए कोर्स इससे आधी अवधि का है और इसमें 8 मास संस्थान में और 4 मास क्षेत्र में प्रयोगात्मक विश्लेषण होता है। बिल्कुल विधानसभा कोर्स की तर्ज पर ही निगम के पार्षद के चुनाव का कोर्स करवाया जाता है। जो लोग चुनाव नहीं लडऩा चाहते, उनके लिए भी यहां पर छह मास के कोर्स करवाए जाते हैं जिनमें राजनीतिक जागरूकता कोर्स, नेतृत्व के गुण विकसित करने का कोर्स, चुनाव प्रबंधन का कोर्स शामिल है। इन सबका शुल्क समयानुसार है। आमतौर पर यह 2500 रुपए मासिक है। आज संसदीय चुनाव के लिए 40 लाख और विधानसभा चुनाव के लिए 16 लाख रुपए के खर्च की सीमा तय है। कुछ राज्यों में यह इससे कम भी है। सवाल यह भी है कि क्या कोई राजनीतिक व्यक्ति इतने खर्च में चुनाव लड़ सकता है? एक संसदीय चुनाव में एक उम्मीदवार एक सौ गाडिय़ां लगाता है। एक गाड़ी का खर्च कम से कम 2000 रुपए प्रतिदिन है यानि 2 लाख रुपए हर रोज और यह कम से कम 15 दिन चलती हैं यानि खर्च सीमा का तीन चौथाई हिस्सा तो इसी में गया। उसके बाद होर्डिंग्स, जनसभाएं, पम्फलेट, अपने चुनाव सिम्बल के बिल्ले-झंडे यह सब अलग। फिर चुनाव है तो दारू भी बांटनी ही पड़ेगी। मतदाताओं को रिझाने के लिए कुछ और गिफ्ट भी बांटने पड़ सकते हैं। यह सही है कि चुनाव आयोग नहीं कहता कि आप इतनी गाडिय़ां लगाओ, दारू और गिफ्ट बांटो, लेकिन यह भी सच है कि इसके बिना काम नहीं चलता। यहां ये भी जरूरी है कि प्रशासनिक सेवा में जो अधिकारी आईएएस, आईपीएस बनते हैं उनको प्रशिक्षण हेतू भेजा जाता है। उसी तर्ज पर राजनीति में आए एवं चुने हुए प्रतिनिधियों का भी एक प्रशिक्षण संस्थान बने। ताकि विधायक एवं सांसद बनने के बाद प्रशासनिक एवं जनमानस के कार्यो को बखुबी कर सकें। 

चर्चा है कि कांग्रेस के एक कद्दावर नेता पूर्व में केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय भी संभाल चुके, चुनाव में पायल बांटते थे। अब पायल बांटते थे तो चुनाव भी जीतते थे। एक बार उनके विरोधी हताश हो गए कि ये क्या है, ये हर बार चुनाव जीत जाते हैं। विरोधी उम्मीदवार के चुनाव प्रबंधन में लगे लोगों को जब पता चला कि मामला ऐसे बिगड़ता है तो उन्होंने भी एक चाल चली कि चुनाव से दो दिन पहले सभी लोगों को संदेश भिजवा दिया कि कांग्रेस उच्चकमान के यहां से एक-एक शाल और 2100 रुपए नगद आए हैं। यह सामान लेकर पावती जरूर देना। अब लोग मांगने लगे शाल और 2100 रुपए नगद नेताजी के पास न आए थे और न उन्होंने देने का मन बनाया था, बस फिर क्या था पायल बांटने का कोई लाभ नहीं हुआ और नेताजी चुनाव हार गए। पैसा भी लगा और चुनाव भी हारे।

खैर ये सब तो लगा हुआ है कभी कोई जीतता है और कोई हारता है, लेकिन आज इस देश में राजनीति को जनसेवा की बजाए कैरियर (आजीविका) का अगर दर्जा मिले और विश्वविद्यालयों, कालेजों में राजनीति की व्यवहारिक पढ़ाई हो तो निश्चित तौर पर देश की राजनीति में किसी हद तक शुचिता आ सकती है। लोगों की हताशा कम हो सकती है। झूठे वायदे और नारों पर रोक लग सकती है। अग्रवाल वैश्य समाज ने हरियाणा के मुख्यमंत्री एवं प्रदेश में स्थापित विश्वविद्यालय के कुलपतियों को इस संदर्भ में कार्यवाही करने के लिए पत्र लिखकर पहल की। इस पत्र में समाज ने अपील की है कि राजनीति को आजीविका का साधन बनाने हेतू पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाए। अग्रवाल वैश्य समाज ने इस संदर्भ में राजनीतिक प्रशिक्षण के लिए एक संस्थान बनाने की योजना भी बनाई है।
मुझे याद है हरियाणा में शराबबंदी का नारा दिया गया और चुनाव में कहा गया कि शराबबंदी के कारण कोई कर वृद्धि नहीं होगी और कोई नया कर नहीं लगेगा, लेकिन सरकार तो पैसे से चलेगी, पैसा कहां से आएगा, यह सोचा तक नहीं गया। सत्ता मिली और शराबबंदी की घोषणा के साथ ही प्रदेश में करों का बोझ बढ़ाना पड़ा, शराब फिर खुल गई, मगर टैक्स कम नहीं हुए।

ये कुछ उदाहरण हैं, जो इस बात का सूचक हैं कि सत्ता में आने के लिए राजनीतिक दल कोई भी प्रलोभन या नारा दे सकते हैं और जनता को उसमें उलझाए रखते हैं, वह जनता को यह सोचने का मौका ही नहीं देना चाहते कि ऐसा होगा कैसे? यह सब व्यवस्था परिवर्तन से संभव है। ऐसा क्या हो कि देश की जनता में में बढ़ रही राजनीतिक हताशा को कम किया जा सके। इसमें कोई एक ही फैक्टर नहीं है, अनेक फैक्टर हो सकते हैं, जिससे राजनीतिक माहौल में कुछ हद तक सुधार की उम्मीद की जा सकती है। 

1. राजनीति को जनसेवा की बजाए कैरियर (आजीविका) का दर्जा दे दिया जाए। इससे स्कूलों, कालेजों में बच्चों को राजनीति का व्यवहारिक ज्ञान मिलेगा। जब आम बच्चा जागरूक होगा तो हताशा कम होगा।

2. राष्ट्रपति के चुनाव में हर राज्य के विधायक के मत की शक्ति अलग है। वह जनसंख्या के लिहाज से है, लेकिन यहां पर शिक्षा के लिहाज से हर व्यक्ति की मत शक्ति अलग की जा सकती है। अधिक शिक्षित व्यक्ति को अधिक मत डालने की शक्ति हो, जिससे देश के निर्माण में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो जाएगी। पानी से बिजली निकालने के बाद आने वाले पानी से फसल नहीं होती, ऐसे नारे देने वाले नेता चुनाव नहीं जीत पाएंगे।

3. राईट टू रिजैक्ट और राईट टू रिकॉल जनता को दिया जाए, ताकि चुनावों के प्रति पूरी तरह से नाउम्मीद हो चले लोगों को बूथ तक आने पर सोचना पड़े।

4. मतदान को अधिकार की बजाए कर्तव्य का दर्जा दिया जाए और मतदान नहीं करने वाले लोगों पर कार्रवाई हो।

सवाल फिर वहीं खड़ा है कि क्या व्यवस्था परिवर्तन की यह लड़ाई वर्तमान राजनीतिक दल लड़ पाएंगे?


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