श्रीमद्भगवद्गीता एवं उत्तरगीता - एक दृष्टि

मधुरिता

श्रीकृष्ण द्वैपायन महामुनी व्यास जी ने महाभारत महाकाव्य की रचना की थी । महाभारत का नाम ‘जयसंहिता’ भी है । यह विश्व का सबसे लम्बा महाकाव्य है । महाभारत को केवल मनुष्य ही नहीं, देवता, पितर तथा यक्ष भी सुनते हैं । इसमें ६० लाख श्लोक हैं । ३० लाख श्लोक देवलोक में, १५ लाख श्लोक पितर लोक में, १४ लाख श्लोक यक्षलोक में तथा १ लाख श्लोक मनुष्य लोक में सुना जाता है । इसी शतसाहस्त्री अर्थात् एक लाख श्लोकों में भगवद्गीता के सात सौ श्लोक शामिल हैं । इस तरह से स्पष्ट है कि केवल मनुष्यों को ही श्रीमद्भगवद्गीता सुननेका सौभाग्य प्राप्त है । देवता भी श्रीमद्भगवद्गीता सुनने के लिए तरसते हैं । उन्हें भी गीता-श्रवण का सौभाग्य तभी प्राप्त होता है जब वे मनुष्य लोक में आते हैं इसीलिए ‘धन्यास्तु ते भारतभूमि भागे, गायन्ति देवाः किल गीतकानि’। भगवान् ने तो अर्जुन को केवल एक ही बार गीता सुनाया था परन्तु हमें तो गीता का बार-बार पठन, स्मरण एवं श्रवण करने का अवसर मिलता है।

महाभारत के भीष्मपर्व के भगवद्गीता नामक अवान्तर पर्व के २५ वें से ४२ वें अध्याय के अन्तर्गत भगवद्गीता आती है । गीता श्रीकृष्ण का अलौकिक ज्ञानमय रूप है - ‘गीता ज्ञान समाश्रित्य त्रिलोकं पाल्याम्यहम्।’ अर्थात् गीता ज्ञान का आश्रय लेकर ही मैं त्रिलोक का पालन करता हूँ ।

कुरूक्षेत्र की पृष्ठभूमि में भगवान् ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था । इसमें भगवान् ने ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, शरणागत योग आदि का वर्णन करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के १८ वें अध्याय के ७२ वें श्लोक में पूछा था -

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा ।
कच्चिदज्ञान सम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ।।


हे पार्थ ! क्या इस (गीताशास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? और हे धनञ्जय ! क्या तेरा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में कहा गया यह अन्तिम श्लोक है । भगवान् ने इसमें दो प्रश्न किये हैं - पहला: एकाग्रचित्त से श्रवण करने के सम्बन्ध में तथा दूसरा: अज्ञान जनित मोह नष्ट होने के सम्बन्ध में । इसके ठीक अगले अर्थात् ७३ वें श्लोक में अर्जुन उत्तर देता है -

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्य ुत ।
स्थितोअस्मि गतसन्देहः करिश्ये वचनं तव ।।

हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त करली है, अब मैं संषय-रहित होकर स्थित हूँ । अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ।

इससे तो स्पश्ट होता है कि अर्जुन ने पहले प्रश्न अर्थात् ‘क्या इसे तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया’ का उत्तर नही देकर केवल द्वितीय प्रश्न का ही उत्तर दिया । इसका क्या कारण है यह तो भगवान् तथा स्वयं अर्जुन ही जानते हैं परंतु हमें जो इसका उत्तर प्राप्त हुआ उसकी विवेचना प्रमाण सहित देने की कोशिश करते हैं -

भगवान् कृष्ण, अर्जुन के सखा भी हैं तो गुरू भी । गीताशास्त्र में एक-एक शब्द विशाल तथा गंभीर अर्थ को समेटे हुए हैं । कुछ भी हो भगवान श्रीकृष्ण ने अगर प्रश्न रखा है तो उसका कुछ कारण तो जरूर ही होगा । भगवान् इस सृष्टि के अद्भुत चितेरे हैं । यह गुरू ही समझ सकता है कि उनका शिष्य उपदेशों को हृदयंगम कर रहा है या नहीं चाहे शिष्य कितना भी चतुराई कर ले।

यों तो गीता के अंतिम श्लोक अर्थात् (१८/७८) में संजय अपनी सम्मति देते हुए कहते हैं-

यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्रश्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ।।


हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर भगवान् श्री कृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है-ऐसा मेरा मत है । हम देखते हैं कि संजय की यह मति अर्थात् निर्णय सही साबित होता है । परंतु भगवान के प्रश्न-‘कच्चिदेतच्ध रुत पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा '- हे पार्थ ! क्या इस (गीता शास्त्र) को तूने एकाग्रचित्त से श्रवण किया? यह प्रश्न युद्ध पश्चात् भी अनुत्तरित रहा। भगवान् अपने प्रश्न को दुहराते नहीं हैं । अर्जुन के जीवन में ही यह लघु प्रश्न फिर खड़ा हो गया। जिस दूसरे प्रश्न का उत्तर भी दिया था‘ ‘नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा'-अर्था त् मेरा मोह नष्ट हो गया और मैने स्मृति प्राप्त कर ली’ वह भी गलत ही साबित हुआ क्योंकि अभिमन्यु की मृत्यु पर अर्जुन मोहग्रस्त हो गया था । अर्जुन ने जिस बुद्धि और मन से मोह नष्ट होने की बातें कहीं थी वह शुद्ध नहीं था अर्थात् मोहावृत्त ही था । परंतु अर्जुन को ऐसा लग रहा था कि वह मोह से मुक्त हो गया । आखिर भगवान तो सर्वान्तर्यामि हैं उन्हें सब कुछ पता था अतः उन्होने ऐसा प्रश्न किया था। महाभारत के आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत अनुगीता नामक उपपर्व के उत्तरगीता में अर्जुन खुद ही कहते हैं :

‘यत तद् भगवता प्रोक्तं पुरा केशवसौहृदात् ।
तत् सर्वे पुरूषव्याघ्र नष्टं में भ्रष्टचेतसः ।।
(उत्तरगीता ६)

किंतु केशव ! आपने सौहार्दवश पहले मुझे जो ज्ञान का उपदेश दिया था, मेरा वह सब ज्ञान इस समय विचलित चित्त हो जाने के कारण नष्ट हो गया (भूल गया) है । भगवान् को ये बातें अप्रिय लगीं -

'नूनमश्रद्नो असि दुर्मेधा हयसि पाण्डव ।'
पाण्डुनंदन ! निश्चय ही तुम बड़े श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि बहुत मंद जान पड़ती है ।

इन प्रसंगों से स्पष्ट है कि पार्थ ने अपने पहले प्रश्न का उत्तर इसलिए नहीं दिया था कि उन्होने एकाग्र चित्त से गीताशास्त्र का श्रवण नहीं किया था । ये बातें भगवान श्रीकृष्ण को भी पता था अतः एक गुरू होने के नाते उन्होंने पार्थ से ऐसा प्रश्न किया था । उस समय ऐसा प्रश्न करने के पीछे भगवान् का यही मंतव्य था कि अगर पार्थ फिर से पूछें तो मैं अभी ही इसको दुहरा दूँगा क्योंकि वे उस समय योगारूढ़ होकर स्थित थे । परंतु ऐसा न हो सका और फिर उन्होंने अर्जुन के कल्याणार्थ उत्तम गति प्रदान करने में सक्षम उसी परमात्म तत्त्व को भिन्न रूप से वर्णित किया उसी को ‘उत्तरगीता’ कहते हैं |

जीव को शुभ-अशुभ सभी कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है , अतएव सत्कर्म ही करें - ऐसी प्रेरणा देने के साथ ही जीव की विभिन्न गतियाँ तथा मोक्ष प्राप्ति के उपायों का वर्णन भी इसमें हुआ है । विशेष बात यह है की भगवान् ने स्वयं अपने मुख से एक योग की क्रिया को भी बताया है | साथ ही यह भी कहा गया है कि जो कोई इस योग का अभ्यास छः महीने तक करेगा उसे यह योग सिद्ध हो जायेगा । यह भी श्रीकृष्णार्जुन संवाद के रूप में हुआ है अतः उत्तरगीता को श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या माना जा सकता है । एक तरह से यों कहा जा सकता है कि भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता में जो कुछ कहना चाहते हैं उसका मर्म ही उत्तरगीता है । भगवान् उत्तरगीता के अन्त में फिर से वही प्रश्न करते है लगभग उन्हीं शब्दों को दुहराते हुए जो उन्होंने श्रीमद्भग्वद्गीता के १८-७२ के पहले प्रश्न में किया था -

‘कच्चिदेत त् त्वया पार्थ श्रु्तमेकाग्र चेतसा ।
तदापि हि रथंस्थस्त्वं श्रुतवानेतदेव हि।।
(५५ उत्तरगीता)'

पार्थ! क्या तुमने मेरे बताये हुए इस उपदेश को एकाग्रचित्त होकर सुना है? उस युद्ध के समय भी तुमने रथ पर बैठे-बैठे इसी तत्त्व को सुना था ।

अन्त में भूलने का कारण भी भगवान् ने बताते हुए कहा है जिसका चित्त दुविधा में पड़ा हुआ है, व्यग्र है, जिसने ज्ञान का उपदेश नहीं प्राप्त किया है वह इसे अच्छी तरह नही समझ सकता है । जिसका अन्तःकरण शुद्ध है वही इसे जान सकता है -‘नरेणाकृत संज्ञेन विशुद्धेनान्तरात्मना ।।’

उत्तरगीता का सारांश बताते हुए भगवान ने कहा है -
'परा हि सा गतिः पार्थ यत् तद् ब्रह्म सनातनम् ।
यत्रामृतत्वं प्राप्नोति त्यक्त्वा देहं सदासुखी ।।'


पार्थ ! जो सनातन् ब्रह्म है, वही जीव की परमगति है । ज्ञानी मनुष्य देह को त्यागकर उस ब्रह्म में ही अमृतत्व को प्राप्त होता है और सदा के लिए सुखी हो जाता है । अंत में यह भी कहते हैं :
‘नातो भूयोsस्ति किंचन ।’ इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है ।

ऐसा कह सकते हैं कि भगवान् ने उत्तरगीता में भगवद्गीता के मर्म को ही सरलीकृत भाषा में प्रकाशित किया है अतः हमें श्रीमद्भगवद्गीता के साथ ही उत्तरगीता जो कि महाभारत में ही वर्णित है अवश्य पढ़नी चाहिए तथा उसका भी मनन, चिंतन, स्मरण करना चाहिये क्योंकि‘उत्तरगीता’ भी भगवान के ‘मुखपद्माद्वीनिःश्ता’ है। तभी श्रीमद्भगवद्गीता का पूर्ण अर्थ प्रकाशित होता है और साथ ही श्रीमद्भगवद्गीता के कई अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर मिल पाता है । उत्तरगीता पर महान दार्शनिक श्रीगौड़पादाचार्य द्वारा रचित एक प्राचीन भाष्य है। विद्वज्जनों से अनुरोध है कि वे इसके बारे में भी कुछ बातें प्रकाशित कर हमें भी कृतार्थ करें ।

श्रीमद्भगवद्गीता मेरे लिए प्रातः-स्मरणीय,मननीय,च िंतनीय तथा परमादरणीय है | भगवान् की कृपा से ही यह प्रश्न उत्पन्न हुआ और इसका उत्तर भी उन्हीं की करुणामयी कृपा से महाभारत में उत्तरगीता से मिला |

यहाँ पर मैं केवल अपना दृष्टिकोण रख रही हूँ |
‘भगवदार्पणमsस्तु’

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