सच्चे सौदे का पूरा सच्च !

आर. डी. भारद्वाज "नूरपुरी "

सब स्थानों के बच्चों को बचपन में अच्छी २ और शिक्षा देने वाली और उनके जीवन को सँवारने वाले किस्से / कहानियाँ पढ़ाई और सुनाई जाती है, उस स्थान के गुरुओं और पीर पैगंबरों की कहानियाँ इत्यादि ताकि बच्चे उन महापुरुषों के जीवन से अच्छी बातें सीख सकें और अपना जीवन बेहतर बनाएँ | ऐसी ही एक कहानी हमने अपने बचपन में अनेकों बार पढ़ी और सुनी हुई है, लेकिन आज मैं फ़िर से इसको दुहराह रहा हूँ, कारण इस कहानी के बारे में एक बात जो ना तो कभी पाठशालों में पढ़ाई गई और ना ही कभी गुरुद्वारों में हमें सुनने को मिलती है |
सिख धर्म के गुरुओं में श्री गुरु नानक देव जी का नाम सबसे पहले आता है, उनका जन्म राय भोए की तलवंडी में 1469 ई. में मेहता कालू जी के घर हुआ था | उनकी माता जी का नाम तृप्ता जी था । बचपन से ही आप बड़े शाँत स्वभाव वाले थे और आपका रुझान भगवान की ओर आम बच्चों से कुच्छ ज़्यादा ही था | छोटी उम्र में ही वह कभी २ बहुत बड़ी २ बातें कर जाते थे जोकि सुनने वाले बड़े आदमियों को भी सोच में डाल देती थीं | उनके जीवन से जुड़ी ऐसी बहुत सी घटनाएँ के बारे में विभिन्न जन्म साखियों में विस्तार से वर्णन पढ़ने को मिलता है।


नानक देव जी जब सात आठ वर्ष के हुए तो पढ़ने लिखने लिए उनको गाँव के पण्डित जी के पास भेजा गया | उस वक़्त हिन्दु धर्म में प्रचलित एक रसम को निभाने के लिए पंडित जी ने सबसे पहले उनके गले में जनेऊ डालने की रस्म पूरी करनी चाही | इसी सन्दर्भ में बालक के गले में एक जनेऊ डालने की जब चेष्टा की, तो बालक नानक देव ने पंडित से पूछा कि यह जनेऊ डालने से क्या लाभ होगा? पंडित जी ने उत्तर दिया कि यह जनेऊ दुःख सुख में, मुसीबत या परेशनियों के समय आपकी रक्षा करेगा | तब बालक नानक देव जी ने पण्डित जी से फ़िर एक सवाल पूछा कि यह जनेऊ जोकि खुद्द सूत के धागों का बना हुआ है, यह जब खुद्द ही वक़्त बीतने पर मैला कुचेला हो जाएगा, गल सड़ जायेगा, तो यह मेरी रक्षा कैसे करेगा? पंडित जी सवाल सुनकर आश्चर्यचकित तो अवश्य हो गए, क्योंकि उनके पास बच्चे के सवाल का कोई जवाब नहीं था | उल्टा उसने बालक नानक देव से ही पूछ लिया कि चलो आप ही बता दो कि हमें कैसा जनेऊ डालना चाहिए? तो नानक देव जी ने उनको कहा कि मुझे ऐसा जनेऊ पहनाया जाए जो न तो कभी टूट सके, न ही गंदा हो सके, न ही उसे पानी गीला कर सके और न ही अग्नि उसे जला सके। पण्डित जी ने फ़िर पूछा कि ऐसा जनेऊ मिलेगा कहाँ ? तब बालक नानक देव ने उन्हें विस्तार से समझाते हुए उत्तर दिया : -

‘‘दया कपाह संतोख सूत, जत गंढी सत वट॥ इह जनेऊ जीय का, हई त पांडे घत ॥
न इह तुटै न मल लगै, न इह जलै न जाए॥ धन सु माणस नानका, जो गल चल्ले पाए ॥’’

जैसे २ कुच्छ और वर्ष बीत गए, नानक देव जी 19-20 वर्ष के हो गए, उनके पिता जी ने उनको किसी न किसी काम धंधे में लगाने की कोशिश की, कि किसी तरह उनका बेटा अपनी रोजी रोटी कमाने लायक बन जाये, लेकिन नानक देव जी का किसी काम में दिल लगता ही नहीं था, वह तो अपना ज़्यादा समय भगवान को याद करने और सिमरन करने में ही लगाया करते थे | इसी बीच मेहता कालू को ध्यान आया - क्यों ना बेटे को कुच्छ पैसे देकर शहर भेजा जाए और उसे कोई ठंग का कारोबार करने के लिए प्रेरित किया जाए | यही सोचकर उन्होंने नानक देव जी को 20 रुपए देकर कुच्छ बढ़िया सामान लाने के लिए शहर भेजा, ताकि उसे बेचकर कुच्छ और पैसे कमाए जा सकें| क्योंकि उस वक़्त के हिसाब से बीस रूपये एक बड़ी रकम थी, मेहता कालू जी ने नानक देव जी के संग उनके एक मित्र भाई मरदाना, जोकि उसी गॉँव का रहने वाला था, उसे भी साथ भेज दिया, और दोनों को समझाया कि कोई ख़रा / बढ़िया / पाक-साफ़ / सच्चा सौदा ही करना है |

अपने गाँव तलवंडी से चलकर नानक देव जी और उनके मित्र जब चूहड़काने पहुँचे, तब सतगुर, गुरु रविदास जी अपने कुच्छ और साथी साधु संतों (संत कबीर जी, नामदेव जी, तरलोचन जी, सदना जी और सेन जी) के संग अपनी जन कल्याण यात्रा पर निकले हुए थे | यह सब साधु संत महात्मा जगह २, गाँव-2 घूमकर लोगों को प्रमात्मा के बारे में समझाते, अध्यात्मवाद पर प्रवचन करते और जातपात न मानने के लिए लोगों को प्रेरित करते और उनको ब्रह्मज्ञान की बहुमूल्य दात / शिक्षा देते | गुरु रविदास जी नानक देव जी से लगभग 32 / 33 वर्ष बड़े थे और अपने ज़माने के सबसे बड़े ब्रह्मज्ञानी गुरु थे, और वह लोगों को रूढ़िवादी / अज्ञानतापूर्ण और तरह २ के भ्रमजाल से लोगों को निकालकर अध्यात्मवाद से जोड़ते हुए एक सच्चे भगवान की भक्ति करने के लिए प्रेरित किया करते थे | नानक देव जी, जिनको कि बचपन से ही प्रमात्मा से इतना लगाव था और अक्सर अपना ज़्यदातर समय प्रभु सिमरन में ही लगाया करते थे, उनको अचानक गुरु रविदास जी की जब संगत करने का सुनहरी अवसर प्राप्त हुआ, तो उनको ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे किसी प्यासे इन्सान को कोई मीठा-निर्मल और तनमन को शीतलता प्रदान करने वाला अमृत जी भरकर पीने को मिल गया हो | गुरु रविदास जी के वचन / प्रवचन उनको बहुत बढ़िया और मन को शान्ति और सकून प्रदान करने वाले अनुभव हुए | नानक देव जी उनके प्रवचनों से इतने प्रसन्न और प्रभावित हुए कि वह उनके लिए कुच्छ भी करने को तैयार हो गए | सत्संग हो चूका था, तो बस इसके बाद लंगर करवाने की इच्छा में नानक देव जी ने अपने दोस्त के साथ मिलकर झटपट लंगर के लिए राशन खरीदा और उस गाँव के सत्संग में शामिल सेवादारों की मदद से लंगर तैयार करवाया और सब साधु संतो के साथ २ सतसंग सुनने आए सब लोगों को लंगर शाकवा दिया | यह सब कार्य करते समय उनको यह भी याद था कि घर से चलते समय उनके पिता जी कहा था कि कोई ख़रा सौदा ही करना, फिर उन महान गुरुओं को भोजन करवाना, जिन्होंने आपको अध्यात्मवाद / प्रभु भक्ति का सही २ रास्ता दर्शाया हो, पाखंडवाद और असलियत में, रूढ़िवादी विचारों और तर्कशीलता में, सच और झूठ में अन्तर इतनी बारीकी से समझाया हो, नानक देव जी को महसूस हुआ कि इससे बढ़कर ख़रा / सच्चा सौदा और क्या हो सकता था ? 

सत्संग सुनकर, प्रभु चर्चा में शामिल होकर और गुरु रविदास जी व उनके साथी साधु संतों को भोजन करवाकर नानक देव जी के मन को बड़ी तृप्ति हुई और उनकी रूह को बड़ी शाँति अनुभव हुई | इसके बाद उन्होंने और उनके मित्र मरदाना ने गुरु रविदास जी के चर्ण स्पर्श किए और उनका आशीर्वाद लेकर चूहड़काने से अपने गाँव तलवंडी के लिए रवाना हो गए| जब नानक देव जी घर पहुँचे और अपने द्वारा किये गए सच्चे सौदे की उनको जानकारी दी, तो उनके पिता जी ने उनको बहुत डांट फटकार लगाई, क्योंकि उनको लगा की नानक देव ने बीस रूपये की बड़ी रकम यूँ ही गँवा दी है, परन्तु नानक देव जी की बहन बीबी नानकी जी ने अपने पिता जी को समझाया कि उसका भाई कोई साधारण पुरुष नहीं, बल्कि भगवान ने उन्हें किसी विशेष कार्य के लिए ही इस धरती पर भेजा है और वह इसी दिशा में कार्य कर रहा है|

लेकिन यह भी एक गम्भीर सोच विचार का मुद्दा है कि नानक देव जी द्वारा किया गया यह सौदा या फ़िर हम इससे हम तन, मन और धन की एक सच्ची सेवा भी कह सकते हैं, इसका वर्णन हमारी धर्म की पुस्तिकों में अधूरा क्यों है? और न ही नानक देव जी कोई ऐसे बिलकुल ही अनाड़ी किस्म के इन्सान थे जोकि किसी निहायत ही सादारण से प्रतीत होने वाले किसी साधु पर बीस रूपये की बड़ी धन राशि ऐसे ही लुटा दें? इसका एक सीधा सा उत्तर जो समझ आता है वह यह है कि सतगुरु रविदास जी द्वारा नानक देव जी को दी गई शिक्षा या ब्रह्मज्ञान, जिसे कि तथाकथित ऊँची जाति के लोग मानने को तैयार नहीं हैं | हमारे देश में जातिप्रथा का कलंक तो पिछले दस हज़ार वर्षों से चला आ रहा है, समय २ पर ना जाने कितने ही गुरुओं / ऋषियों / मुनियों और पीर पैगंबरों ने आम जनता को इस गलत और जातिगत सोच को बदलने की हज़ारों बार कोशिश भी की, सब को बार - २ यह बात समझाने का पूरा २ प्रयास किया कि सभी इन्सान निरंकार / प्रमात्मा ने एक ही मिट्टी से बनाए हैं, सभी इन्सान वही पाँच तत्वों {हवा, पानी, मिट्टी, अग्नि और आकाश (आत्मा) } के पुतले हैं, और सब में उस एक ही निरंकार / प्रमात्मा की ज्योत (जिसे हम आत्मा कहते हैं) जलती है, न तो प्रमात्मा ने कोई जातपात बनाई हैं और न ही धर्म व मज़हब बनाए हैं, निरंकार ने तो केवल इन्सान ही बनाए हैं और उसने इन्सान बनाते समय किसी किस्म का कोई भेदभाव नहीं किया है, ऐसा एक इन्सान से दूसरे इन्सानों में भेदभाव पैदा करने वाले काम तो कुच्छ शातिर लोगों ने अपने निजी स्वार्थ को ध्यान में रखते हुए ही किए हैं, और यह भी एक बहुत बड़ी विडम्बना है कि ऐसी रूढ़िवादी सोच को समाज वाले लोग अपनी सुविधा अनुसार सच मानने लग गए और यही धीरे २ यह हमारी समाज में मान्यताएँ बनती चली गई| गुरबाणी में भी एक शब्द आता है - "अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बन्दे / एक नूर से सब जग उपजिया / कौण भले कौण मंदे ------------" अवतार बाणी में भी एक शब्द आता है - "इक्को नूर है सबदे अंदर / नर है चाहे नारी है / ब्राह्मण , खत्री , वैश्य , हरिजन, इक्क दी ख़लकत सारी है ----------- "

गुरु नानक देव जी की गुरु रविदास जी से मुलाकत और उनसे ब्रह्मज्ञान लेने की घटना का जिक्र आता है कुच्छ लोग अपना तकियानूसी या अल्प बुद्धि तर्क देते हैं कि अगर रविदास जी वाक़्या ही इतने बड़े सतगुरु थे, तो वह अपने लिए और अपने बाकी साथी साधु संतों के लिए भोजन की व्यवस्था क्यों नहीं कर सके? इसका सीधा सा उत्तर यह है कि जब उनकी मुलाकात नानक देव जी से हुई, तब रविदास जी चूहड़काने में अपनी जन कल्याण यात्रा पर थे | महान सतगुरु जगह २ घूम २ कर प्रमात्मा का सन्देश आम जन मानस तक पहुँचाने हेतु, उनको बेहिसाब फैले हुए भ्रमजाल के अंधकार से निकालकर ज्ञान के उजाले में लाकर उनको प्रभु भक्ति से जोड़ने के लिए गुरु गाँव - २ जाया करते थे, उस वक़्त गुरु रविदास जी भी एक ऐसी ही कल्याण यात्रा पर थे | नानक देव जी भी जब गुरु बने, तब उन्होंने भी अपने जीवन काल में चारों दिशाओं में चार बड़ी २ कल्याण यात्राएं की जिनको बाद में इतिहासकारों ने "उदासियाँ " का नाम दिया है| जब गुरु जन कल्याण यात्रा पर होते थे, तब वह अपने श्रद्धालुओं द्वारा ही परोसे गए भोजन ही किया करते थे | जिस गाँव में अपने प्रवचन करने के लिए डेरा लगाना, वहीं पर भोजन ग्रहण कर लेना | और किसी सज्जण का यह बात कहना कि मैंने अपने गुरु को भोजन करवाया है, यह तो बहुत निम्नकोटि की सोच का परिचय देती है | हमेशा याद रखो ! गुरु जिस भी श्रद्धालु की सच्चे मन की लगन से प्रसन्न होता है, वह उसी पर दयालु / कृपालु होकर उसे सेवा का अवसर देता है | यह सेवा कई प्रकार की हो सकती है - तन की, मन की या फ़िर धन की | भोजन करवाना भी एक तरह की सेवा ही है, जोकि गुरु रविदास जी ने उस वक़्त नानक देव जी को इसलिए बख्शी, क्योंकि उन्होंने नानक देव जी को देखकर पहली नज़र में ही भाँप लिया कि यह इन्सान तन और मन से बिलकुल पवित्र है और यह अध्यात्मवाद / भगवान की ख़ोज में बहुत आगे तक जाने की प्रबल इच्छा शक्ति व श्रद्धा रखता है | गुरु रविदास जी को नानक देव जी में यह गुण / लक्षण प्रथम दृष्टि में ही नज़र आ गए थे | इसी लड़ी में गुरु रविदास जी ने नानक देव जी को, उनके अन्दर प्रमात्मा को जानने और पाने की इतनी ज़्यादा कशिश / तड़प / प्यास देखी कि चूहड़काने में एक ऐसा ही सेवा का अवसर उन्होंने नानक देव जी को दिया और उनका प्रभु भक्ति की ओर रास्ता और सुदृढ़ और स्पष्ट कर दिया | मग़र, इस पूरे सन्दर्भ का मतलब यह हरगिज नहीं निकाल लेना चाहिए कि गुरु रविदास जी भूखे थे, गुरु तो सबका दाता होता है, पालनहार होता है, दुनियाँ की कोई भी सौगात उनसे छिपी हुई नहीं होती, और वह तन मन से पूर्ण रूप में संतुष्ट होते हैं, यह दुनियावी सौगातें तो उनके चरणों के नीचे होती है, क्योंकि वह तो खुद वक़्त का पैग़म्बर होता है, और दुनियाँ के दुःख तकलीफ़ कष्ट दूर करने के लिए ही वह धरती पर अवतार लेते हैं | निरंकार प्रमात्मा का ही साकार रूप होता है सतगुरु और धर्म की स्थापना और आम जन-मानस कल्याण हेतु वह हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं ! 

ऐसी और भी बहुत सी उदहारण दी सकती हैं, लेकिन इतने हज़ार वर्ष बीत जाने के बाद भी अभी भी करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिनको यह बात समझ नहीं आई है और वह इस सच्चाई को समझने और तनमन से मानने को तैयार नहीं हैं | जातपात की धूल उनके मन और मस्तिष्क पर बड़ी बुरी तरह चिपकी हुई है, इस काल्पनिक मिथिक की वजह से समाज में फ़ैली हुई इतनी व्यापक आर्थिक ऊँच-नीच , बड़ी २ जमीन जायदादों और कारोबारों का अधिपत्य / नेतृत्व / संकुल या फ़िर लोगों के पूर्वगृह भी हो सकते हैं, लेकिन यह सब मानव रचित खेल ही हैं, निरंकार ने हरगिज़ नहीं बनाए ; नतीजा यह है कि वह अभी भी अपनी भेदभाव वाली सोच और मानसिकता छोड़ने को तैयार नहीं हैं | अगर कोई अकेला दोकेला छोड़ने को तैयार भी हो जाए , तो धर्म के ठेकेदार बीच में अपनी छुआछूत वाली मानसिकता के चलते ऐसा होने नहीं देते और यह भी उसी घटिया और गिरवाट लाने वाली सोच के ही परिणाम है कि तथाकथित ऊँची जातियों के लोग इतिहास के किसी भी दौर में किसी निचली जाति के इन्सान ने जब भी कोई बड़ा कार्य किया हो, समाज के तथाकथित ऊँची जातियों के लोगों ने कभी उस बड़े इन्सान को इसका श्रेय नहीं दिया है, उसकी प्रशंसा नहीं की है और न ही उसका बनता मान सम्मान ही दिया है | बड़े २ कार्यों को मानने और वह कार्य करने वालों को श्रेय देने का उनका हमेशा एक ही पैमाना रहा है - और वह है कि क्या यह कार्य करने वाला किसी ऊँची जाति का है या फ़िर किसी नीची जाती का ! अगर कोई बड़ा कार्य करने वाला कोई इन्सान नीची जाति से सम्बंधित है तो ऊँची जातियों के लोग किसी न किसी और बेहूदा और षड्यंत्रकारी तर्क वितर्क करते हुए उसे नकारने लग जाते हैं और उनसे बड़े इन्सान को हमेशा छोटा करके दिखाने की ही चेष्टा की जाती है | यहाँ तक कि दलितों के महान विद्वानों, ऋषियों / मुनियों के साथ भी उनका यही दुर-व्यवहार देखने को मिलता है| इसी सोच के चलते हुए उन्होंने कभी गुरु रविदास को गुरु नहीं माना, हमेशा उनको भक्त रविदास बोलकर या लिखकर हमेशा उनका निरादर करते रहे हैं, डॉ अम्बेडकर जैसे महान विद्वान, समाज सुधरक, अर्थशास्त्री और हमारे देश के संविधान निर्माता को उन्होंने कभी उनका बनता स्थान व दर्जा नहीं दिया, इसी सन्दर्भ में - महान विद्वानव समाज सुधारक, महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले की मिसाल भी दी जा सकती है | रही बात गुरु रविदास जी की, यह बात भी जगज़ाहिर है कि चौहदवीं शताब्दी की राजपूत रानी मीराबाई भी गुरु रविदास जी की ही भक्त थी, और उसको भी गुरु रविदास जी से ही ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी, लेकिन ऊँची जाती वालों को यह बात भी स्वीकार करने में हमेशा मानसिक दिक्कत महसूस होती रही है | 

यहाँ पर एक और बात का जिक्र करना अनिवार्य हो जाता है जोकि हमारे महान गुरुओं / पीर-पैगंबरों ने हमें अनेकों बार समझाने को कोशिश की है कि भगवान के दो रूप होते हैं - एक निराकार और दूसरा साकार ! जब २ भी इस पृथ्वि पर धर्म की हानि होती है और पाप कर्म बहुत ज़्यादा बढ़ जाते हैं तो भगवान स्वमं इन्सान के रूप में जन्म लेते हैं और यह उनका साकार रूप होता है | साकार रूप में प्रकट होकर ऐसे महान गुरु लोगों को रूढ़िवादी सोच विचारों और भ्रमों से छुटकारा दिलवाते हैं, पापों का नाश करते हैं और ऐसे धीरे - २ धर्म की पुण्य स्थापना करते आए हैं | भगवान राम, श्री कृष्ण, महात्मा बुद्ध, गुरु रविदास और गुरु नानक देव जी ने भी अपने २ समय में आम जन मानस को समझाने के लिए हज़ारों यत्न किये और करोड़ों लोगों को अज्ञानता के अन्धकार से बाहर निकाला और मानवता का कल्याण किया | दूसरी बात - ब्रह्मज्ञान एक ऐसी दुर्लभ / अमोलक वास्तु है जोकि केवल और केवल निरंकार या भगवान जब साकार रूप में प्रकट होते हैं, तबी वह योग्य व्यक्तियों को प्रदान करते हैं | मीरा ने जब जन्म लिया था, तब श्री कृष्ण तो साकार रूप में थे ही नहीं, वह तो मीरा से लगभग साढ़े तीन हज़ार वर्ष पहले ही ब्रह्मलीन हो चुके थे, अत: यह बात कहना कि मीरा ने श्री कृष्ण से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया था, इस बात में कोई सच्चाई नहीं है ! 

गुरु रविदास जी को गुरु न मानने का प्रसंग मीरा से जुड़ी एक और बड़ी घटना में भी आता है | मीराबाई का जन्म राजस्थान के मेड़ता में सन 1498 में, एक राजपरिवार में हुआ और उनके पिता रतन सिंह राठोड़ एक छोटे से राजपूत रियासत के शासक थे। वे अपनी माता-पिता की इकलौती संतान थीं और जब वे छोटी बच्ची थीं तभी उनकी माता का निधन हो गया था। मीरा का विवाह राणा सांगा के पुत्र और मेवाड़ के राजकुमार भोज राज के साथ सन 1516 में संपन्न हुआ। उनके पति भोज राज दिल्ली सल्तनत के शासकों के साथ एक संघर्ष में सन 1518 में घायल हो गए और इसी कारण सन 1521 में युवा अवस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई । इतिहास में इस बात का भी प्रमाण मिलता है कि उस समय की प्रचलित एक प्रथा के अनुसार पति की मृत्यु के बाद मीरा को उनके पति के साथ सती करने का प्रयास भी किया गया, किन्तु इसके लिए मीरा ने स्पष्ट लफ्जों में मना कर दिया | क्योंकि मीरा के मना करने के बाद उसके सके सम्बन्धी व रिश्तेदार उसकी हत्या करवाने की फ़िराक में थे, इसलिए वह अपने घर से भाग गई और धीरे-धीरे वे संसार से विरक्त हो गई और साधु-संतों की संगति में कीर्तन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं | लेकिन उनके अंतर्मन की प्यास - सच्ची भक्ति और ब्रह्मज्ञान और भगवान की प्राप्ति नहीं बुझ पा रही थी | ऐसे ही जब इधर उधर घूमते २ किसी साधु ने उसे इतनी शिद्दित से प्रमात्मा की ख़ोज में उनका ध्यान पाया तो उसने मीरा को सुझाव दिया कि बनारस में एक सत्तगुरु है, जो उसके प्यासे मन की तृष्णा को शाँत कर सकता है, और वह है गुरु रविदास जी | तो अपने भगवान प्राप्ति के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए तब मीरा सतगुरु रविदास जी की शर्ण में आई । गुरु रविदास जी ने उसकी भौतिक / सांसारिक वस्तुओं का त्याग और प्रभु भक्ति की इतनी तीव्र तड़प / प्यास देखकर उनको ब्रह्मज्ञान की दौलत से मालामाल करवाया और अध्यात्मवाद / भक्ति में उनको रास्ता साफ़ -२ दिखलाया | और जब मीरा को एक सच्चा गुरु मिल गया और उससे उसको ब्रह्मज्ञान की बेशकीमती दौलत की प्राप्ति हो गई , तब मीरा का बुझा-२ सा और सांसारिक दुःख तकलीफों का मारा हुआ मन भी पुल्कित हो उठा और वह प्रसन्नता से झूम-२ कर नाचने गाने लग गई - "पाइओ जी मैंने राम रतन धन पाइओ / वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुर, किरपा कर अपनायो / पाइओ जी मैंने राम रतन धन पाइओ !!" 

लेकिन उनके ससुराल पक्ष और बाकी ऊँची जातियों के समाज ने मीरा द्वारा रविदास जी अपना गुरु बनाना राजघराने की मर्यादा के अनुकूल नहीं माना और समय-समय पर उस पर अत्याचार करते ही रहे । यही नहीं, उसके परिवार वालों को एक राजपूत राणी का गुरु रविदास से ब्रह्मज्ञान लेने की बात उस वक़्त की प्रचलित अन्धविश्वास और जातिप्रथा के अनुकूल न मानते हुए वह हमेशा इस बात से इन्कार ही करते रहे कि मीरा ने रविदास जी को अपना गुरु बनाया है और उसे ब्रह्मज्ञान भी प्राप्त किया है | मीरा अपनी जीवन यात्रा समाप्त करके सन 1560 में मृत्युलोक चली गई |

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