ईश्वर कण कण में है !


आर.डी. भारद्वाज "नूरपुरी "

यह घटना 7 / 8 वर्ष पहले की है , एक मेजर के नेतृत्व में 15 जवानों की एक टुकड़ी हिमालय के अपने रास्ते पर जा रही थी, उन्हें ऊपर कहीं अगले दो महीने के लिए दूसरी टुकड़ीकी जगह तैनात होना था | दुर्गम स्थान, ठण्ड और बर्फ़बारी ने चढ़ाई की कठिनाई और बढ़ा दी थी ! बेतहाशा ठण्ड में यह सभी जवान चले जा रहे थे , उनमें से एक जवान नेअचानक अपनी टुकड़ी के इन्चार्ज , मेजर साहिब से बिनती भरे स्वर में कहा , कि काश ऐसे में उन्हें यहाँ एक कप चाय मिल जाती, तो हम लोग थोड़ा और जोश के साथ आगेबढ़ते जाते | लेकिन रात का समय था और आस पास कोई बस्ती या कोई छोटा मोटा गाँव भी नहीं थी | लेकिन चलते - २ वह सभी आस पास के इलाके पर नज़र रखे हुए थे ,कि शायद उन्हें कहीं कोई उम्मीद की किरण नज़र आ जाए | लगभग एक डेढ़ घण्टे की चढ़ाई के पश्चात उन्हें एक जर्जर हालत में चाय की छोटी सी दुकान दिखाई दी ! मेजरसाहेब से इजाजित लेकर वह सभी उसी तरफ़ घूम गए , लेकिन अफ़सोस उस पर ताला लगा था ! भूख और थकान की तीव्रता के चलते जवानों के आग्रह पर मेजर साहेब ने दुकान का ताला तोड़ने की इज़ाजित दे दी | एक जवान ने दुकान का ताला तोड़ा , दुकान के अंदर चलकर देखा कि चाय बनाने का सभी सामान वहाँ पर उपलब्ध था | जवानों नेचाय बनाई , चाय के साथ खाने को उन्हें बिस्कुट और मठियाँ भी मिल गई | चाय पीकर उनको थोड़ा राहत अनुभव हुई और वह थकान से उबरने के पश्चात जब सभी आगे बढ़नेकी तैयारी करने लगे , लेकिन मेजर साहेब को यूँ चोरो की तरह दुकान का ताला तोड़ने के कारण कुच्छ आत्मग्लानि सी हो रही थी , उनके बाकी साथी जवान भी उनकी तरफ़देखने लग गए कि साहेब अब क्या करने वाले हैं ? थोड़ी देर सोचने के बाद मेजर साहेब ने अपने पर्स में से पाँच - २ सौ के दो नोट निकाले और चीनी के डिब्बे में रख दिया तथादुकान का शटर ठीक से बंद करवाकर, आगे बढ़ गए | इस से मेजर की आत्मग्लानि कुच्छ हद तक कम हो गई और टुकड़ी अपने गंतव्य की और आगे बढ़ने लग गई , यहाँ परपहले से तैनात टुकड़ी उनका इन्तज़ार कर रही थी | इस टुकड़ी ने उनसे अगले दो महीने के लिए चार्ज लिया और वह सभी अपनी ड्यूटी पर तैनात हो गए |

अपनी दो महीने की ड्यूटी की समाप्ति पर इस टुकड़ी के सभी 15 जवान सकुशल अपने मेजर के नेतृत्व में उसी रास्ते से वापिस आ रहे थे , रास्ते में उसी चाय की दुकान कोखुला देखकर वह सभी वहां फ़िर से चाय पीने और थोड़ा विश्राम करने के इरादे से रुक गए | उस दुकान का मालिक एक बूढ़ा चाय वाला था , जो एक साथ इतने ग्राहक देखकरबड़ा खुश हो गया और उनके लिए चाय बनाने लगा | चाय की चुस्कियों और बिस्कुटों के बीच जवान बूढ़े दुकानदार से उसके जीवन के अनुभव पूछने लगे, खास्तौर पर इतनेबीहड़ में दूकान चलाने के बारे में | उस दुकानदार ने उन्हें अपने जीवन की कुच्छ खट्टी मीठी बातें बताई , लेकिन उनकी हर बात पर भगवान में अटूट विश्वास झलकता था | बात- २ पर वह अपने हाथ ऊपर उठाकर भगवान का शुक्रिया अदा करता | उसकी बातों पर हैरानगी ज़ाहिर करते हुए एक जवान से नहीं रहा गया और उसने दुकानदार से सवालकिया , "बाबा ! आप भगवान को इतना मानते हो , अगर भगवान सच में होता तो फ़िर वह आपकी आर्थिक स्थिति में सुधार क्यों नहीं लाता , आपको और आपके परिवार कोउसने इतने बुरे हाल में क्यों रखा हुआ है ?"

दुकानदार बोला, "नहीं साहेब ! ऐसा नहीं कहते, भगवान तो बिलकुल है और मुझे इसमें रत्ती भर भी कोई शक़ नहीं है , और सच में मैंने उनको देखा है, अनुभव किया है !" उसबूढ़े दुकानदार का आख़री वाक्य सुनकर सभी जवान आँखें फाड़ - २ कर उसकी ओर देखने लग गए | ख़ैर , थोड़ी देर तक उसे देखने के बाद मेजर साहिब ने उस से एक सवालकिआ , "आपने भगवान को कब और कहाँ देखा , और आपको यह कैसे लगा कि ईश्वर यही है ?"

सभी जवान उस बूढ़े दुकानदार की तरफ़ हसरत भरी निगाहों से देख रहे थे और वह उनको सम्बोधन करते हुए कहने लगा - "साहब ! मै बहुत मुसीबत में था , एक दिन मेरेइकलौते बेटे को आतंकवादियों ने पकड़ लिया , उन्होंने उसे बहुत मारा पीटा , लेकिन उसके पास कोई जानकारी नहीं थी , इसलिए उन्होंने उसे मार पीट कर वह लोग चले गए !" मुझे मेरे ही गाँव के एक सज्जण ने इसी दुकान पर इस घटना की जानकारी दी और मैं झटपट दुकान बंद करके उसे अस्पताल ले गया , मै बहुत तंगी में था साहेब औरआतंकवादियों के डर से किसी ने मुझे उधार भी नहीं दिया !"

"उस वक़्त मेरे पास दवाईयों के लिए पैसे भी नहीं थे और मुझे कोई उम्मीद भी नज़र नहीं आ रही थी , उस रात साहेब मैं बहुत रोया और मैंने भगवान से प्रार्थना की और मददमांगी , और साहेब ! आप यकीन करना, उस रात भगवान मेरी दुकान में खुद आए और उन्होंने मेरी सहायता की !" उन जवानों में से एक ने पूछा , "भगवान ने ख़ुद आपकीसहायता की ? कैसे ?"

"मैं सुबह जब अपनी दुकान पर पहुँचा, तो ताला टूटा देखकर मुझे लगा की मेरे पास जो कुछ भी थोड़ा बहुत बचा था, वो सब भी लुट गया, लेकिन मेरा शक़ गलत साबित हुआ, मैंधीरे - २ दुकान के अन्दर दाख़िल हुआ तो देखा कि दुकान में सब कुच्छ सही सलामत है ! जब मैंने अपने समान को जाँचना शुरू किया तो देखकर मेरे आश्चर्य की कोई सीमान रही, मैंने देखा कि पाँच सौ के दो नोट चीनी के डिब्बे में भगवान ने मेरे लिए रख दिए थे , मैंने जब इतने सारे रूपये देखे , तो भगवान का लाख - २ धन्यवाद किया, क्योंकिइतने रूपये तो मेरे लिए 5 / 6 दिन की कमाई जैसे थे, उस दिन हज़ार रूपये की मेरे लिए कितनी कीमत थी, यह मैं आपको बयान नहीं कर सकता ! मेरे लिए वह बहुत बड़ी रकमथी और मुझे रुपयों की उस वक़्त जरुरत भी बहुत थी ! अब आप ही बताएँ , मेरे जैसे गरीब आदमी की भगवान के सिवाए कौन मदद कर सकता था, भगवान ने मेरी मदद भीकर दी और किसी को ज़ाहिर भी नहीं होने दिया ! आपने एक पुराना गाना भी सुना होगा - "जिसका कोई नहीं उसका तो ख़ुदा है यारो ! मैं नहीं कहता , किताबों में लिखा है यारो!" सच मानो साहेब ! इस दुनियाँ में केवल भगवान ही है जोकि गरीबों की वक्त - बेवक़्त सहायता करता है ! कम से कम मेरा तो उसमें अट्टल विश्वास है! " वह बूढ़ा इन्सानफ़िर अपने आप में बड़बड़ाता हुआ दुकान की तरफ़ बढ़ने लगा ! भगवान के होने का आत्मविश्वास उसकी आँखों में साफ़ चमक रहा था, यह सुनकर थोड़े समय के लिए वहाँसन्नाटा छा गया !

चौदांह जोड़ी आँखें मेजर की तरफ़ देख रही थी, और मेजर साहेब की नज़र उस बूढ़े दुकानदार को टिकटिक्की लगाए देखे जा रही थी ! एक जवान ने कुच्छ कहने की कोशिश की,लेकिन मेजर साहेब ने उसे चुप रहने के लिए स्पष्ट इशारा कर दिया ! उसके बाद सभी जवान वहाँ से उठे और मेजर साहेब ने फ़िर से चाय का बिल अदा किया और दुकानदार कोगले लगाते हुए बोले "हाँ बाबा ! मैं भी अब समझता हूँ कि - भगवान है, और कण कण में है, ज़र्रे - २ में है, पत्ते - २ में है.... आप भी बिलकुल सच कहते हो , भगवान है , औरआपकी चाय भी बड़ी स्वादिष्ट थी!" इतना कहते ही उसने दुकानदार के हाथ में चाय के पैसे थमाए और सभी जवानो ने अपनी नम आँखों से उस बजुर्ग दुकानदार से जाने कीइजाजित माँगी और उसे हाथ हिलाते हुए , बाये - २ करते हुए वहाँ से चल पड़े !

थोड़ी दूर जाने के बाद एक जवान ने मेजर साहेब से सवाल पूछा, "साहेब जब मैंने उस बजुर्ग दुकानदार को एक हज़ार रुपयों का खुलासा करने की कोशिश की तो आपने मुझे चुपरहने का इशारा क्यों किया ?" मेजर साहेब ने उत्तर दिया, "शायद तुम्हें याद नहीं था , कि दो महीने पहले जिस दिन हम लोग इधर ड्यूटी के लिए आ रहे थे , तो हम लोग तोसीधे ही अपनी मंज़िल की दिशा में चले आ रहे थे , हम में से ही एक जवान ने चाय पीने की इच्छा जाहिर की थी और तभी हम लोग उस दुकान की तरफ़ मुड़ गए थे ! उस वक़्त/ रात उसके दिल में चाय पीने का ख्याल भी ईश्वर की मर्जी से ही आया होगा , दुकान पर पहुँचकर हमने देखा की दुकान पर तो ताला लगा हुआ था , ताला देखकर हम बिनाचाय पिये भी वहाँ से निकल सकते थे , लेकिन ऐसा नहीं हुआ और फ़िर उस दुकान का ताला तोड़ने का ख्याल मेरे मन में आया , हमने ताला तोड़ा दुकान के भीतर जाकरहमने चाय पी , बिस्कुट - मठियाँ भी खाई , हमें वहाँ देखने वाला हमारे सिवाए तो कोई नहीं था , इसके बावजूद भी मेरे मन में ख़्याल आया कि चाय का बिल का भुगतान करनाचाहिए , इसके पैसे तो डेढ़ दो सौ रूपये से ज़्यादा नहीं बनने थे , फिर भी मैंने उस चीनी के डिब्बे में एक हज़ार रूपये रख दिए ! यह सब कुच्छ ऐसे ही तो नहीं हो गया ? यह सबकेवल इत्तेफाक़ मात्र भी नहीं था , हमसे यह सब कुच्छ कोई अदृश्य शक्ति ही करवा रही थी , और वह अदृश्य शक्ति भगवान / ईश्वर / अल्ला / ख़ुदा / या फ़िर निरंकार केसिवाए और कौन हो सकती है ? वह बजुर्ग दुकानदार सच ही कहता था , ईश्वर है और उसकी परेशानी के वक़्त मदद करने की गर्ज़ से ही निरंकार ने हमारे मन में चाय का ख़्याललाया था और बाकी सब कुच्छ भी उसी तरह होता चला गया , जैसे निरंकार करना चाहता था ! एक और बात, वह बूढ़ा दुकानदार अपनी परेशानी की घड़ी में एक हज़ार रूपयेपाकर इतना ख़ुश हो गया कि वह दुकान का टूटा हुआ ताला भी भूल गया, अपने पूरे वार्तालाप में उसने दुकान का ताला टूटने की एक बार भी शिकायत नहीं की , क्योंकि उसेपूरा भरोसा था कि यह सब कुच्छ उस ईश्वर ने ही किया कराया है | इस पूरी घटना की बस यही पूरी सच्चाई है, बाकी और कुच्छ नहीं ! और अब यह बात मैं भी मानता हूँ कि प्रमात्मा है, और कण कण में है, पत्ते - २ में है ! पूरी सृष्टि को चलाने वाली वही एक पर्म शक्ति है !"

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