खेल संघों से राजनीतिज्ञों व व्यापारियों को बाहर निकालो


एस. एस. डोगरा

पिछले दिनों आईपीएल-6 में बीसीसीआई के अध्यक्ष श्रीनिवासन के दामाद की स्पॉट फिक्सिंग में लिप्तता से भारत वर्ष का नाम बदनाम हुआ। लेकिन हैरत की बात है कि वे अपनी कुर्सी को छोड़ने को तैयार नहीं है। वैसे भी, हमारे देश में राज्य व राष्ट्रीय स्तर के खेल संघों पर तमाम राजनीतिज्ञ व व्यापारी ही कब्जा करें बैठे हैं। हालांकि इन्हे खेलों की कोई ठोस जानकारी भी नहीं है। इसी तरह भारतीय ओलिम्पिक संघ के पूर्व अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी की घपलेबाजी ने सबको चौंका डाला था। उनका भी खेलों से कोई वास्ता नहीं था बल्कि उनको पद भी इसीलिए मिला हुआ था कि वे कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्ता थे बाकी कुछ नहीं। और तो और लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में लिप्तता के बावजूद भी बिहार क्रिकेट संघ के अध्यक्ष बने बैठे है।


भारतीय हॉकी महासंघ के अध्यक्ष दिनेश रेड्डी एक पुलिस अफसर तो भले ही रहें हों लेकिन हॉकी खेल से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। आज हमारे राष्ट्रीय खेल हॉकी खेल की दयनीय स्थिति से भला कौन अनभिज्ञ है। रेड्डी साहब हॉकी के खेल को बढ़ावा देने में क्या योगदान दे सकते हैं। रेड्डी साहब पहले आंध्रा प्रदेश हॉकी संघ के अध्यक्ष तथा भारतीय हॉकी महासंघ के उपाध्यक्ष भले ही रहे हों लेकिन हॉकी के ऊथान्न में उन्होने कोई विशेष कदम नहीं उठाएँ हैं। महान हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यान चन्द की अगुवाई में ओलिम्पिक व हॉकी विश्व कप में उम्दा प्रदर्शन के बाद आज हॉकी का जनाजा निकल रहा है लेकिन किसी कोई सरोकार है ही नहीं। फिक्सरों व खिलाड़ियों पर तो तुरन्त कानूनी कारवाही कर दी जाती है, लेकिन इन घोटालेबाजों कोई सिकंजा कसा ही नहीं जाता है।

अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ के अध्यक्ष श्री प्रफुल्ल पटेल भी भारतीय फुटबाल को लोकप्रिय बनाने में अभी तक तो नाकामयाब ही रहें है। हालांकि इंडियन फुटबाल लीग, क्रिकेट के आईपीएल से भी पुराना है लेकिन फुटबाल को चमकाने में, अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ कतई निकम्मा ही साबित हो रहा है। सन 1948 में भारतीय फुटबाल टीम को ओलिम्पिक खेलने का मौका अवशय मिला था लेकिन देश की आजादी के बाद से लेकर आज तक किसी भी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगियों में हिस्सा लेने की तो बात ही छोड़िए आज तक हमारी फुटबाल टीम एशियाई खेलों तक में हिम्मत नहीं जुटा पाई है।

यदि हम भारतीय ओलिम्पिक इतिहास पर नजर डाले तो पिछले वर्ष लंदन ओलिम्पिक में छ: पदक जरूर हासिल किए। लेकिन इससे पहले भारत द्वारा 112 वर्षों के ओलिम्पिक खेलों में मात्र 20 पदक जुटाने में कामयाब हुआ हैं, जिनमें ग्यारह पदक हॉकी में तथा 9 व्यक्तिगत रूप से अर्जित पदक है जबकि सन 2008 में मात्र पहली बार शूटर अभिनव बिंद्रा ने स्वर्ण पदक जीता। इसी तरह एशियाई खेलों, कोममोनवेल्थ खेलों में भी कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन करने में ज्यादा सफलता नहीं मिली है।

हालांकि पिछले दिनों युवा खेल मंत्री जितेन्द्र सिंह ने देश के विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों को खेलों के विकास के लिए दो दिनों का सम्मेललन भी किया था। इसके क्या सुखद परिणाम निकलने वाले हैं यह तो आने वाला समय ही बताएगा। क्या फ्लाइंग सिक्ख मिल्खा सिंह, तैराक खजान सिंह, धावक पी. टी. उषा, टेनिस खिलाड़ी विजय कृषणन, बिलियर्ड खिलाड़ी माइकल फ़रेरा, बैडमिंटन खिलाड़ी प्रकाश पादुकोण, पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी कपिल देव/सुनील गावस्कर, पहलवान महाबली सतपाल, निशानेबाज अभिनव बिंद्रा, शतरंज के बादशाह-विश्वनाथ आनन्द, भारतोलक-कर्णम मल्लेश्वरी जैसे अनेक भारतीय खिलाड़ियों की सेवाएँ नहीं लेनी चाहिए जिन्होने अपने-अपने खेल में उल्लेखनीय योगदान की बदौलत देश ही नहीं विदेशों में भी भारतवर्ष का नाम गर्व से ऊंचा किया, उन्हे ऐसे सम्मेल्लन में भुला देना चाहिए। लेकिन क्या भारतीय ओलिम्पिक संघ, सरकार व खेल मन्त्राल्य को जरूरी कदम नहीं उठाने चाहिए ताकि भारत का भी खेलों में विश्व स्तर पर नाम रोशन करने की क्षमता पैदा हो सके। खेलों के उत्थान के लिए पूर्व खिलाड़ियों की खेल संघो, कमेटियों व विकासशील नीतियाँ निर्धारण करने में विशेष भागीदारी का प्रावधान रखना चाहिए। इस देश की भी अजीब विडम्बना है कि कुछ क्रिकेट खिलाड़ियों को सांसद बनने का मौका मिला जिनमे पहले चेतन चौहान, कीर्ति आज़ाद, मोहम्मद अजहरुद्दीन व नवजोत सिंह सिद्धू, लेकिन ये खेलों के विकास के लिए बिलकुल नकारे साबित हुए। परन्तु राज्यसभा में मनोनीत हुए सचिन तेंदुलकर से खेल प्रेमियों को बहुत आशाएँ बंधी हैं। वैसे क्रिकेट के मैदान में धूम मचाने वाले मास्टर ब्लास्टर संसद की विकेट पर कैसी पारी खेलते हैं यह तो आने वाला समय ही बताएगा। गौरतलब है कि सचिन क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों को भी सम्मान दृष्टि से देखते हैं। एकदिवसीय और अब आईपीएल से सन्यास लेने के जल्द ही टेस्ट से भी जल्द ही विदा होने के बाद खेलों के विकास के लिए क्या अहम भूमिका निभा पाते हैं। वे राजनैतिक पारी को बखूबी खेलने में कितने खरे उतरते हैं ये तमाम सवाल हर खेल प्रेमी के मन में उठ रहा है।

जबकि अन्य खेल संघों में भी राजनीतिज्ञों व व्यापारियों का ही बोलबाला है जो वास्तव खेल विशेष में कोई गूढ जानकारी नहीं रखते हैं और ना कभी खेलों में विशेष रुचि रखते हैं। बावजूद इसके, खेल संघों पर कब्जा जमाए बैठे हैं। आज हमारे पड़ोसी देशो विशेष रूप से दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, मलेशिया आदि ने थोड़े से ही समय में कितनी तरक्की करी है उसके पीछे एक सोच है खेल जगत में नाम कमाने का जोश, खेल नीतियाँ-विशेषकर आर्थिक रूप से कमज़ोर परंतु प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के लिए विशेष प्रोत्साहन योजनाएँ कारगार साबित हो रहीं हैं। हमें भी उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए, और सकारत्मक कदम उठाने होंगे, खुली मानसिकता से काम लेना होगा केवल तभी हमारे देश के खेल व खिलाड़ियों का उद्धार हो सकेगा। स्कूल-कालेजो में खेलों के लिए विकासकारी योजनाएँ तुरन्त लागू करनी होगी अन्यथा हमें खेलों में यूही शर्मशार होना पड़ेगा।

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