वर्तमान परिप्रेक्ष्य में होली


डॉ. उर्मिला पोरवाल सेठिया 
बेंगलुरु
होली का त्यौहार वसंत पंचमी से ही आरंभ हो जाता है क्योंकि उसी दिन पहली बार गुलाल उड़ाया जाता है। इस दिन से जगह जगह पर परंपरानुसार फाग और धमार के गीत गाना प्रारंभ हो जाते है। होली का त्यौहार फाल्गुन माह की पूर्णिमा को मनाए जाने के कारण फाल्गुनी, वसंत का संदेशवाहक होने के कारण वसंतोत्सव और हर्ष उल्लास और रंगोत्सव होने के कारण काम-महोत्सव भी कहलाता है।

इस लोकप्रिय पर्व में राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग हैं ही पर इनको उत्कर्ष तक पहुँचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग-बिरंगे यौवन के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है। खेतों में सरसों खिल उठती है। बाग-बगीचों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो जाते हैं। खेतों में गेहूँ की बालियाँ इठलाने लगती हैं। बच्चे-बूढ़े सभी व्यक्ति सब कुछ संकोच और रूढ़ियाँ भूलकर ढोलक-झाँझ-मंजीरों की धुन के साथ नृत्य-संगीत व रंगों में डूब जाते हैं। चारों तरफ़ रंगों की फुहार फूट पड़ती है।

इस त्यौहार की रौनक प्रमुखता से भारत तथा नेपाल में देखने को मिलती है। यह त्यौहार कई अन्य देशों जिनमें अल्पसंख्यक हिन्दू लोग रहते हैं वहाँ भी धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। वैसे तो इस उत्सव के कई रूप देखने को मिलते हैं लेकिन ब्रज की फूलों की होली के साथ-साथ नंदगाँव और बरसाने की लट्ठमार होली बहुत प्रसिद्ध है।

रंगों का त्यौहार कहा जाने वाला यह पर्व पारंपरिक रूप से दो दिन मनाया जाता है। पहले दिन को होलिका जलायी जाती है, जिसे होलिका दहन कहते हैं। दूसरे दिन, जिसे प्रमुखतः धुलेंडी व धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन आदि अन्य नामों से पुकारा जाता हैं, इस दिन लोग एक दूसरे पर रंग, अबीर-गुलाल इत्यादि फेंकते हैं, ढोल बजा कर होली के गीत गाते हैं और घर-घर जा कर लोगों को रंग लगाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि होली के दिन लोग पुरानी कटुता को भूल कर गले मिलते हैं और फिर से दोस्त बन जाते हैं। एक दूसरे को रंगने और गाने-बजाने का दौर दोपहर तक चलता है। इसके बाद स्नान कर के विश्राम करने के बाद नए कपड़े पहन कर शाम को लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, गले मिलते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। होली के दिन घरों में खीर, पूरी आदि विभिन्न व्यंजन पकाए जाते हैं। इस अवसर पर अनेक मिठाइयाँ बनाई जाती हैं जिनमें गुझियों का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण रहता है। बेसन सेव और दहीबड़े भी सामान्य रूप से उत्तर प्रदेश में रहने वाले हर परिवार में बनाए व खिलाए जाते हैं। कांजी, भांग और ठंडाई इस पर्व के विशेष पेय होते हैं। इस दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।

होली के इस पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है भक्त प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के दर्प में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। फिर असत्य पर सत्य की विजय होने पर हर्ष उल्लास स्वरूप रंगोत्सव मनाया जाता है।

भक्त प्रह्लाद की कथा के अतिरिक्त कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना नामक राक्षसी का वध किया था। इसी खु़शी में गोपियों और ग्वालों ने रासलीला की और रंग खेला था। तब से होली का त्यौहार मनाया जाता है।

होली का त्यौहार हँसी-खुशी का त्यौहार है, लेकिन होली के भी अनेक रूप देखने को मिलते हैं।
होली एक ओर तो बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में मनाई जाती है तो दूसरी ओर रंगों तथा हास्य के पर्व के रूप में भी। कुछ लोगों को इस पर्व के फूहड़पन या अमर्यादित हुड़दंग पर आपत्ति है तो कुछ इसे अश्लील पर्व की संज्ञा भी देते हैं क्योंकि इस पर्व में कई बार सामान्य शिष्टाचार की सीमाओं का अतिक्रमण भी हो जाता है। प्राकृतिक रंगों के स्थान पर रासायनिक रंगों का प्रचलन, भांग-ठंडाई की जगह नशेबाजी और लोक संगीत की जगह फ़िल्मी गानों का प्रचलन इसके कुछ आधुनिक रूप हैं। लेकिन इससे होली पर गाए-बजाए जाने वाले ढोल, मंजीरों, फाग, धमार, चैती और ठुमरी की शान में कमी नहीं आती। अनेक लोग ऐसे हैं जो पारंपरिक संगीत की समझ रखते हैं और पर्यावरण के प्रति सचेत हैं। इस प्रकार के लोग और संस्थाएँ चंदन, गुलाबजल, टेसू के फूलों से बना हुआ रंग तथा प्राकृतिक रंगों से होली खेलने की परंपरा को आज भी बनाए हुए हैं, साथ ही इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान भी दे रहे हैं।

समाज में होली मनाने या खेलने की विधि को लेकर विभिन्न विचारधाराएँ देखने-सुनने में आती हैं। लेकिन क्या वास्तव में रंगों से खेलने का ये त्यौहार अश्लील या असभ्य कहा जा सकता है? यदि ध्यानपूर्वक अवलोकन करें तो जीवन में ऐसे क्षणों की भी आवश्यकता होती है जब हम अपने मन में समाए घातक मनोभावों अथवा विकारों से मुक्त हो सकें। होली का हुड़दंग हमें ये अवसर उपलब्ध कराता है। इस अवसर पर हमारे अवचेतन मन में एकत्र विकृत भाव या विकार किसी भी रूप में बाहर निकल कर हमें तनावमुक्त कर प्रफुल्लित बना देते हैं।

मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो रंगों का हमारे मनोभावों पर और हमारे मनोभावों का हमारे शरीर पर गहरा असर पड़ता है। होली के अवसर पर हर व्यक्ति अपने पसंदीदा रंग ख़रीदकर दूसरों पर लगाता है जिससे उसे आनन्द की अनुभूति होती है और यह आनंदानुभूति अनेक व्याधियों के उपचार में सहायक होती है। होली का गहरा संबंध हास्य से भी है क्योंकि होली के रंगों से हास्य की सृष्टि होती है। रंगों और कीचड़ से पुते चेहरे हास्य की सृष्टि में सहायक होते हैं। दूसरों को रंगने या मूर्ख बनाने की चेष्टा में ख़ुद ही रंगा जाना तथा मूर्ख बन जाना, रंग लगाने के बहाने थोड़ी छूट लेने के प्रयास में पकड़े जाना और उपहास का पात्र बनना ये सब क्रिया-कलाप करने वालों को स्वयं और देखने वालों को भी गुदगुदाते हैं। और हास्य में जो उपचारक शक्ति होती है वह किसी से छुपी नहीं है। हँसना न केवल एक अच्छा व्यायाम है जो गले से ऊपर के सभी अंगों और मांसपेशियों की जकड़न को दूर कर देता है अपितु यह ध्यान का ही एक रूप है।

हँसने के दौरान शरीर में जिन लाभदायक हार्मोंस का उत्सर्जन होता है वे न केवल तनाव को समाप्त करते हैं अपितु शरीर में रोगों से लड़ने की क्षमता का विकास कर हमें स्वस्थ बनाए रखने में भी सहायक है। दूसरे शब्दों में कहें तो होली के रंग और हुड़दंग के माध्यम से जीवन में व्याप्त निराशाजनक विचारों से मुक्त होकर नये आशावादी विचारों के साथ उत्साहपूर्ण जीवन की शुरूआत संभव है। ये व्यक्ति के पुनर्जन्म जैसी अवस्था है।

होली ही एक ऐसा पर्व है जो हमें पुराने, ख़राब, तनावपूर्ण संबंधों और नकारात्मक दृष्टिकोण तथा निराशावादिता को तिलांजलि देने का अवसर प्रदान करता है। परिचितों के मध्य संबंध सुधारने या मनमुटाव दूर करने तथा अपरिचितों से नये संबंध बनाने का ये एक अच्छा अवसर है। होली ही एक ऐसा त्यौहार है जब कोई बुरा नहीं मानता। किसी को रंगों से सराबोर कर दीजिए ओर बदले में उससे मित्रता स्थापित कर लीजिए। कई बार गाल पर एक चुटकी गुलाल कमाल कर देता है।

होली पर्व की लोकप्रियता का विकसित होता हुआ अंतर्राष्ट्रीय रूप भी स्पष्ट आकार लेने लगा है। बाज़ार में इसकी उपयोगिता का अंदाज़ा होली के अवसर पर एक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठान केन्ज़ोआमूर द्वारा जारी किए गए नए इत्र होली है से लगाया जा सकता है।

निष्कर्ष रूप में यह कहना उचित है कि जिस प्रकार वसंत ऋतु के मध्य में यह पर्व मनाया जाता है और उस दौरान प्रकृति में भी ख़ास परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। एक तरफ धरती रंग-बिरंगे फूलों से लद जाती है तो दूसरी तरफ ऐसी वनस्पतियाँ और पेड़-पौधे भी हैं जो अपना पुराना लिबास उतार फेंकते हैं

मौसम में परिवर्तन तथा उसके प्रभाव से प्रकृति में परिवर्तन। इसी तरह व्यक्ति के मनोभावों में परिवर्तन होना संभव है साथ ही उसके भौतिक शरीर में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक गुण है। होली इस परिवर्तन का अवसर प्रदान करती है। प्रकृति के परिवर्तन को देखें और उससे तादात्म्य स्थापित कर प्रेरणा ग्रहण करें। मौसम का बदलना अनिवार्य घटना है। जब मौसम का बदलना अनिवार्य है तो मनुष्य का बदलना भी अनिवार्य है। हम भी बदलें। अपने अंतर्मन में समाए घातक मनोभावों से मुक्त हो जाएँ। जिस प्रकार पेड़ अपनी पुरानी पीली पड़ गई पत्तियों को फेंक नई पत्तियाँ धारण कर पुनर्जन्म पाता है हम भी नकारात्मक भावों से मुक्त होकर सकारात्मक भावों का विकास कर नये जीवन में प्रवेश करें। परिवर्तन के अभाव में ये विकास ये पुनर्जन्म संभव नहीं।

हमारा भारत त्योहारों का देश है। प्रायः हमारे सभी पर्व चाहे वो दशहरा-दीपावली हों या होलिका-दहन सभी बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक के रूप में मनाए जाते हैं। असतो मा सद्गमय की कामना की जाती है। लेकिन जब तक मन में विकार मौजूद हैं जब तक कैसे ‘‘असतो मा सद्गमय’’ की ओर अग्रसर हो सकेंगे अथवा बुराई पर अच्छाई की विजय प्राप्त कर सकेंगे? सत्य और अच्छाई का संबंध तो मनाभावों से ही है अतः सकारात्मक परिवर्तन या रूपांतरण के लिए रंगों के इस पर्व में ग़ोता लगाकर विकार मुक्त होना अनिवार्य है। कोई भी पर्व, उत्सव का रूप तभी लेता है, जब उसे सामूहिक रूप से मनाया जाए ! आज के सन्दर्भ में होली की प्रासंगिकता तभी है जब हम सब एकत्र हो, अपने समाज तथा राष्ट्र से बाह्य रूप से और अपने दोषों तथा अहंकार की वैचारिक नकारात्मकता का अन्तर्मन से दहन करें ! यही इस पर्व की वास्तविक प्रासंगिकता है। होली महोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएं।

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